Friday, October 5, 2018

मेरे ग़ज़ल संग्रह झूठ से अलग की समीक्षा कई अख़बारों का हिस्सा बनी।  हिंदुस्तान, अमर उजाला, राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर, दैनिक नवज्योति, समाचार जगत, पंजाब केसरी, बुलेटिन टुडे, राजस्थान खोज खबर. अलग अलग ढंग से इस पर रोशनी डाली गई और मुझ जैसे नाचीज को सम्मान दिया.









Thursday, October 4, 2018



हिंदी फिल्म के मशहूर राइटर शक्तिमान तलवार का पिछले दिन इंटरव्यू लेने का मौका मिला, अनगिनत फिल्म की कहानी लिखने वाले तलवार जिंदादिल आदमी हैं 

पुस्तक समीक्षा

पुस्तक समीक्षा : झूठ के बाजार में 'झूठ से अलग' गजलों की एक दास्तान

संदीप पाण्डेय की गजलें जीवन में व्याप्त झूठ पर केंद्रित हैं. जैसा कि शीर्षक से ही लगता है कि उनकी गजलों में जीवन की उदासी, बेचैनी, क्रोध, चालबाजियां और घोखा सब कुछ हैं

नई दिल्ली: लंबे समय तक पत्रकारिता से जुड़े रहे संदीप पाण्डेय के गजल संग्रह 'झूठ से अलग' को पहली नजर में देखने पर उस वैदिक ऋषि की बात याद आती है जो - असतो मा सदगमय यानी असत्य से सत्य की ओर जाने की प्रार्थना करता है. संदीप पाण्डेय की गजलें जीवन में व्याप्त झूठ पर केंद्रित हैं. जैसा कि शीर्षक से ही लगता है कि उनकी गजलों में जीवन की उदासी, बेचैनी, क्रोध, चालबाजियां और घोखा सब कुछ हैं. समाज जीवन का लंबा अनुभव रखने वाला व्यक्ति ही ऐसी गजल लिख सकता है.

फासले बढ़ रहे हैं अपनों से,
किसका खास होता जा रहा हूं

संदीप पाण्डेय ने अपनी गजलों के जरिए सत्ता और राजनीति पर भी तीखे कटाक्ष किए हैं. इसमें वो सत्ता के खोखले वादों - दावों पर तंज कसते हैं, वहीं सत्ता के इर्द-गिर्द झूठ के मायाजाल को भी उन्होंने अपनी गजल के जरिए बाखूबी दर्शाया है.

महंगाई तो पहुंच गई है आसमान पर,
भाषण से धी-दूध का दरिया बहाएंगे

भारतीय समाज और रिश्तों के तानेबाने में आ रहे बदलाव पर भी उन्होंने कई गजलें लिखी हैं. तेजी से बढ़ते शहरीकरण और रातोरात आधुनिक बन जाने की इच्छा के चलते हमने बहुत कुछ ऐसा खो दिया है, जो हमारी असली धरोहर थी. शहर और गांव को इस विरोधाभास का प्रतीक बनाकर संदीप लिखते हैं-

रिश्ते अब जहर होते जा रहे हैं,
गांव अब शहर होते जा रहे हैं

तमाम परेशानियों और समाज में बढ़ते एकाकीपन के बाद भी वो इंसान में संघर्ष के जज्बे को जलाए रखने में यकीन रखते हैं. उनका कहना है कि सच कहने के लिए जरूरी नहीं कि आपके पीछे हजारों लोग खड़े हों. सच अकेला ही पर्याप्त होता है. क्योंकि सच सच होता है. गवाहों की जरूरत तो झूठ को होती है. वो लिखते हैं-

अकेला हूं साथ में नहीं दौलत-शौहरत,
बावजूद इसके भी बात बड़ी रखता हूं

ये गजल संग्रह हमारे आसपास रच-बस गए झूठ को बखूबी रेखांकित करता है, लेकिन इस झूठ के पार जो सच है, उस पर मोटेतौर पर खामोश है.  लेखक जीवन की चुनौतियों का तार्किक समाधान नहीं दे पाते हैं. झूठ से अलग जो सच है, उस सच की बात इसमें बहुत कम है.

पता नहीं लेखन ने जानबूझकर ऐसा किया है या अनजाने में. हमारे जीवन का झूठ भले एक जैसा हो, लेकिन सबका सच अलग अलग होता है. फिर भी प्रत्येक पाठक अपने लेखक से समाधान की अपेक्षा तो रखता ही है. उम्मीद है कि लेखन की आने वाली रचनाओं में हम कुछ रचनात्मक समाधान पा सकेंगे.

संदीप पाण्डेय के इस गजल संग्रह में कुल 96 गजलें हैं और इसे बोधि प्रकाशन जयपुर ने प्रकाशित किया है. भाषा बहुत ही सरल और सहज है, जो किसी भी अच्छे पत्रकार का स्वाभाविक गुण है. इसके बावजूद प्रत्येक गजल के अंत में उर्दू के कुछ कठिन शब्दों के हिंदी अर्थ दिए गए हैं, जो निश्चित रूप से पाठकों के लिए उपयोगी साबित होंगे.


Wednesday, October 3, 2018

मां की मुराद
संदीप पाण्डेय
टूटा-फूटा घर पूरी तरह गिरने के मुहाने पर खड़ा था। आसपास के मकानों के आलीशान होने की शर्मिंदगी घर में बच्चों से लेकर बड़े तक झेल रहे थे। रकम थी नहीं तो कोशिश की बात तक नहीं होती थी। कमाई सब भाइयों की इतनी थी कि जिंदगी की जरूरतें जैसे-तैसे पूरी हो रही थीं। घर चल रहा था, बड़ी ख्वाहिशें तो पूरी नहीं होती थीं, लेकिन छोटी इच्छाओं के पूरी होने पर फक्र कर लेते थे। और बस खुशी इस बात की थी कि किसी के आगे मदद मांगने की बेइज्जती से बचे हुए थे। इस बार की बारिश में कहीं ढह न जाए आशियाना, इसी चिंता से आने वाले झूठे ख्वाबों का सिलसिला भी लगभग बंद सा हो गया था। रोजाना सुबह अखबार पर नजर डालते, चाय की चुस्कियों के बीच घर के सभी लोग बीमार मकान के ‘इलाज’ पर चर्चा तो शुरू करते, लेकिन यह लंबी नहीं खिच पाती। इसकी वजह भी साफ थी कि सीमेंट/गारा हो या फिर ईंट/बजरी ये सब दाम होगा तभी तो हो पाएगा। कारीगर/बेलदार अपनी पगार लेगा, सो अलग। यही हिसाब तमाम प्रयासों पर पानी फेर देता। कभी-कभी कौन-कितना खर्च करेगा, इस मुद्दे पर भी जब बात शुरू होती थी तो थोड़ा गरमा-गरमी तक हो जाती थी। फिर थोड़ा नाराज होकर सब अपने-अपने कमरों में जा घुसते, बरामदा खाली रह जाता। बस मां उसमें बैठे-बैठे बड़बड़ाने लगती। अब उसे चुप कराने की हिम्मत किसी में थी ही नहीं। माहौल को सामान्य करने के लिए बीते पन्ने पलटने लगती। कभी गुस्से से तो कभी हलके में बताने लगती कि कितनी मुश्किल से खरीदा गया था मकान। कितना घूमे शहर में,  कभी मकान जचता तो औकात देखकर चुप हो जाते तो कभी हैसियत के मुताबिक मिलता तो वो उन्हें पसंद नहीं आता। मां जब कभी भी यह व्यथा-कथा शुरू करती, पता नहीं क्यों मैं उनको ध्यान से सुनता रहता। उदास हो जाता, पैसा न हो पाने पर कोसने लगता अपने नसीब और भगवान को या फिर मुस्कुराकर सबकुछ अच्छा होने की उम्मीद पर टाल देता। यह जरूर था कि उनकी जुबान से हर आठ-दस दिन में यही सब सुनाई दे जाता था। ये सबकुछ मुझे भी रट सा गया था। पिता बड़ी मेहनत से खरीद पाए थे, इस मकान को। साइकिल पर हर रविवार नई-नई कॉलोनियों में जाकर बच्चों के लिए घर का सपना संजोते। यह अलग बात थी कि उन्होंने जिंदगी के तकरीबन पैंतालीस बरस किराए के मकान में जाया कर दिए। इसमें बीस बरस एक विवादास्पद मकान में जमे किराएदारों को निकलवाने के लिए कोर्ट के चक्कर लगाए। कानून की कमजोरियां से वाकिफ थे। वकील साहब बार-बार केस जीतने का दावा जताते थे और पिता-घर परिवार के लिए मेहनत कर कमाए चंद रुपए का एक बड़ा हिस्सा इसी केस पर खर्च कर चुके थे। जैसे-तैसे मकान खाली हुआ फिर बिक गया। दूसरा मकान ढूंढने में कुछ बरस बीत गए। कभी मां को साथ ले जाते तो कभी अपने ही साथियों के साथ निकल पड़ते। नई-नई बसती कॉलोनियों में दूरी नहीं देख रहे थे, वे अपनी मजबूरी के बीच आशियाने की ललक लिए फिर रहे थे। उन्हें पता था कि रकम मामूली सी है, उधार के सहारे ही यह सब हो पाएगा। आखिरकार मकान ले ही लिया। बिना नांगल-मुहूर्त के उसमें रहने आ गए। रिश्तेदार/मित्रों को भोजन कराने की स्थिति में नहीं थे। अब उनके मकान की कोई सार-संभाल ही नहीं कर रहा। हाल यही रहे तो एक दिन भरभरा कर गिर जाएगा। सब आ जाएंगे सडक़ पर, फिर क्या करेंगे। ऐसा नहीं था कि सब भाई मकान को दुरुस्त कराने की सोचते नहीं थे, लेकिन रजिस्ट्री के अभाव में लोन की दिक्कत तो थी ही, कुछ आशंकाएं भी थीं जो जैसे-तैसे गुजरने पर सबको विवश कर देती थी। एक दिन मां के इसी गुस्से से अवसाद में आ गया। मां गलत भी कहां कहती है? रात को नींद भी नहीं आई। सुबह उठा तो देखा मां कुर्सी पर बैठी है। पोते-पोतियों के साथ मन बहलाने में लगी है। बात करने की मेरी तो हिम्मत ही नहीं थी। अखबार ढूंढ ही रहा था कि मां बोली, चाय पी ली।  मैं हां-हूं कहकर अखबार लेकर बैठ गया। नींद न आने का असर चेहरे पर दिख रहा था। मां ही बोली, सोया नहीं रात को। इतना सुनते ही मैं फूट-फूटकर रोने लगा। तेज आवाज में बोलना शुरु कर दिया, तुम्हें पता है, तनख्वाह और खर्च के बाद कितना बच पाता है। ऐसे में कैसे हो मकान सही। यह भी सही है कि सब मिलकर जिम्मेदारी को समझें तो यह हो जाए, लेकिन शायद...। इतना ही कह पाया था कि मां खड़ी हो गई, बोलीं...बेटा मैं भी समझ रही हूं। जितना सब कमाते हैं, खर्च हो जाता है, पर मां हूं...कहूं नहीं क्या? घर में सब खुश रहें पर घर के बारे में सोचें भी तो सही। इसीलिए तो कहती हूं।   बुरी लगती है मेरी बात पर जब तेरे पिता ने अकेले अपनी मेहनत की कमाई से इसे खरीद लिया तो क्या इसे सुधरवाने के लिए तुम सबको कोई बेईमानी करने की कह रही हूं। अरे, घर तो अंतिम शरण स्थली है, यहीं पर ही तनाव/चिंता और डर के साथ जिए तो फिर सुकून से कहां रह पाओगे। मां की बातें आंख खोलने वाली थी। अखबार  कोने में पटक दिया था। इस शोर-शराबे से पूरा घर बरामदे में खड़ा था। मैं खामोश था, मां बोले जा रही थी कि देख यहां से पाइप टूट गया, यहां पलस्तर होना बाकी है, ये दरवाजा भी अंतिम सांस ले रहा है। सब एक-दूसरे को देखकर मुस्कुराने की कोशिश करने लगे थे, लेकिन मुस्कान चेहरे पर आ नहीं पा रही थी। मां के हर शब्द को सब गंभीरता से सुन रहे थे। न कोई बोल रहा था, न कोई मजबूरी बताने की पहल को आतुर हो रहा था। मैं भी अब तक थोड़ा सामान्य हो चुका था। अपने आप को ही धिक्कारने लगा। पिछले कई दिनों से सोच रहा था कि मकान बेच देते हैं। सब अपना-अपना हिस्सा ले लें और अपनी व्यवस्था देखें। इस फैसले पर खुद ही सहमत नहीं हो पाता था, इसकी वजह यह भी थी कि जानता था कि चार हिस्सों में बंटी एक मकान की कीमत से हासिल कुछ नहीं होने वाला था। यह भी सच था कि चारों अपने-अपने लिए एक कमरे का छोटा प्लॉट तक नहीं ले सकते थे। पिता और मां की इस निशानी को संभालने की जिद के चलते इस बेहया प्लान को ठुकरा दिया। हम भाई इस बात पर ही खुश थे कि बहस भले ही कितनी तीखी हो, लड़ाई/झगड़े के पाले नहीं खिंच रहे। बंटवारा नहीं हो रहा न मकान बेचने की बात कोई उठाने की जुर्रत कर रहा है। मां की मुराद पूरा करने की जिद पर मैं निकल रहा था घर से। आशियाने के सपने कभी छोटे नहीं हुआ करते, मां ने यही कहा...घर-घर होता है, अपना घर कितना टूटा-फूटा हो उसे संभाला इसलिए जाता है कि मजबूरियां मखौल न बन जाए। भाई भी अब एकमत होने लगे थे। मकान को सुधारने/संवारने की कोशिश में सबने सहमति दे दी थी। मां ने आंसू रोकने की नाकाम कोशिश के बीच रूंधे गले से कहा, मेरे बच्चों घर को सलीके से सजाओगे तो जिंदगी में सुकून ही सुकून मिलेगा। बिखरे घर में आशंकाओं का डेरा होता है और आशंकाएं चैन से सोने नहीं देती। घर की खूबसूरती मां के चमकते चेहरे से सबको नजर आ गई।


दोस्तों,
 कुछ दिनों पहले मेरी यह कहानी आकाशवाणी से प्रसारित हुई थी। जिंदगी की असलियत को कुछ यूं उतारने की कोशिश की। जिसमें घर की मुश्किलों के बीच सहने और जुड़े रहने की परिवार के हर सदस्यों की सहने के जज्बे को भी शब्दों में पिरोया है। 


मां की मुराद
संदीप पाण्डेय
टूटा-फूटा घर पूरी तरह गिरने के मुहाने पर खड़ा था। आसपास के मकानों के आलीशान होने की शर्मिंदगी घर में बच्चों से लेकर बड़े तक झेल रहे थे। रकम थी नहीं तो कोशिश की बात तक नहीं होती थी। कमाई सब भाइयों की इतनी थी कि जिंदगी की जरूरतें जैसे-तैसे पूरी हो रही थीं। घर चल रहा था, बड़ी ख्वाहिशें तो पूरी नहीं होती थीं, लेकिन छोटी इच्छाओं के पूरी होने पर फक्र कर लेते थे। और बस खुशी इस बात की थी कि किसी के आगे मदद मांगने की बेइज्जती से बचे हुए थे। इस बार की बारिश में कहीं ढह न जाए आशियाना, इसी चिंता से आने वाले झूठे ख्वाबों का सिलसिला भी लगभग बंद सा हो गया था। रोजाना सुबह अखबार पर नजर डालते, चाय की चुस्कियों के बीच घर के सभी लोग बीमार मकान के ‘इलाज’ पर चर्चा तो शुरू करते, लेकिन यह लंबी नहीं खिच पाती। इसकी वजह भी साफ थी कि सीमेंट/गारा हो या फिर ईंट/बजरी ये सब दाम होगा तभी तो हो पाएगा। कारीगर/बेलदार अपनी पगार लेगा, सो अलग। यही हिसाब तमाम प्रयासों पर पानी फेर देता। कभी-कभी कौन-कितना खर्च करेगा, इस मुद्दे पर भी जब बात शुरू होती थी तो थोड़ा गरमा-गरमी तक हो जाती थी। फिर थोड़ा नाराज होकर सब अपने-अपने कमरों में जा घुसते, बरामदा खाली रह जाता। बस मां उसमें बैठे-बैठे बड़बड़ाने लगती। अब उसे चुप कराने की हिम्मत किसी में थी ही नहीं। माहौल को सामान्य करने के लिए बीते पन्ने पलटने लगती। कभी गुस्से से तो कभी हलके में बताने लगती कि कितनी मुश्किल से खरीदा गया था मकान। कितना घूमे शहर में,  कभी मकान जचता तो औकात देखकर चुप हो जाते तो कभी हैसियत के मुताबिक मिलता तो वो उन्हें पसंद नहीं आता। मां जब कभी भी यह व्यथा-कथा शुरू करती, पता नहीं क्यों मैं उनको ध्यान से सुनता रहता। उदास हो जाता, पैसा न हो पाने पर कोसने लगता अपने नसीब और भगवान को या फिर मुस्कुराकर सबकुछ अच्छा होने की उम्मीद पर टाल देता। यह जरूर था कि उनकी जुबान से हर आठ-दस दिन में यही सब सुनाई दे जाता था। ये सबकुछ मुझे भी रट सा गया था। पिता बड़ी मेहनत से खरीद पाए थे, इस मकान को। साइकिल पर हर रविवार नई-नई कॉलोनियों में जाकर बच्चों के लिए घर का सपना संजोते। यह अलग बात थी कि उन्होंने जिंदगी के तकरीबन पैंतालीस बरस किराए के मकान में जाया कर दिए। इसमें बीस बरस एक विवादास्पद मकान में जमे किराएदारों को निकलवाने के लिए कोर्ट के चक्कर लगाए। कानून की कमजोरियां से वाकिफ थे। वकील साहब बार-बार केस जीतने का दावा जताते थे और पिता-घर परिवार के लिए मेहनत कर कमाए चंद रुपए का एक बड़ा हिस्सा इसी केस पर खर्च कर चुके थे। जैसे-तैसे मकान खाली हुआ फिर बिक गया। दूसरा मकान ढूंढने में कुछ बरस बीत गए। कभी मां को साथ ले जाते तो कभी अपने ही साथियों के साथ निकल पड़ते। नई-नई बसती कॉलोनियों में दूरी नहीं देख रहे थे, वे अपनी मजबूरी के बीच आशियाने की ललक लिए फिर रहे थे। उन्हें पता था कि रकम मामूली सी है, उधार के सहारे ही यह सब हो पाएगा। आखिरकार मकान ले ही लिया। बिना नांगल-मुहूर्त के उसमें रहने आ गए। रिश्तेदार/मित्रों को भोजन कराने की स्थिति में नहीं थे। अब उनके मकान की कोई सार-संभाल ही नहीं कर रहा। हाल यही रहे तो एक दिन भरभरा कर गिर जाएगा। सब आ जाएंगे सडक़ पर, फिर क्या करेंगे। ऐसा नहीं था कि सब भाई मकान को दुरुस्त कराने की सोचते नहीं थे, लेकिन रजिस्ट्री के अभाव में लोन की दिक्कत तो थी ही, कुछ आशंकाएं भी थीं जो जैसे-तैसे गुजरने पर सबको विवश कर देती थी। एक दिन मां के इसी गुस्से से अवसाद में आ गया। मां गलत भी कहां कहती है? रात को नींद भी नहीं आई। सुबह उठा तो देखा मां कुर्सी पर बैठी है। पोते-पोतियों के साथ मन बहलाने में लगी है। बात करने की मेरी तो हिम्मत ही नहीं थी। अखबार ढूंढ ही रहा था कि मां बोली, चाय पी ली।

Tuesday, October 2, 2018

gazal sangreh..jhooth se alag

सादर नमस्ते

मेरा गजल संग्रह झूठ से अलग हाल ही में बोधि प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। आज के हालातों और सियासी हलकों की करीब 96 गजलों का ये गुलदस्ता है। आपको बताते हुए हर्ष हो रहा है कि हिंदुस्तान, अमेर उजाला, राजस्थान पत्रिका सहित करीब एक दर्जन अखबारों ने मेरी पुस्तक पर समीक्षा प्रकाशित की है। ख्वाहिश है कि आप भी इसे पढ़ें। मेरी मेहनत को सराहें नहीं तो कम से कम खामियां ही बता दें ताकि सुधार कर सकूं। मैं चाहता हूं कि मेरे मित्र/जानकार तक मेरी यह मेहनत पहुंचे। इससे पहले भी काव्य संग्रह कोशिश कागज पर प्रकाशित हो चुका है। आप पुस्तक के बारे में 9829255841 पर व्हाट्सएप कर अपना पता नोट कराएं। मेरा संबल बढ़ाएं...

सादर

संदीप पाण्डेय



Tuesday, September 19, 2017

कभी जनहित में भी तो कीजिए हड़ताल संदीप पाण्डेय मांग पूरी नहीं होती। सरकार के आश्वासन के ‘राशन’ से आखिर कब किसका पेट पूरा भरा है। अब हड़ताल-धरना-प्रदर्शन ‘बहुतायात’ में होते हैं। कर्मचारी/ अधिकारी संगठन भी अलग-अलग खेमे हैं। एक सरकार के साथ तो दूसरा विपक्ष से ‘गलबहियां’ करते हुए चलता है। विरोध के सुर स्वयं ‘हितार्थ’ या यूं कहें कि अपने हक को लेकर ही ज्यादा होता है। यही हाल राजनीतिक दलों का है, जो विपक्ष में होता है, उसे भी जनता के हित का तभी ध्यान आता है। सरकार बनने के बाद जनता की परेशानियों से दूरी बनाने का दायित्व बखूबी निभाया जाता है। चिकित्सक हड़ताल/सामूहिक अवकाश पर चले गए तो सरकारी ‘तामझाम’ सामने आ गया। नागौर में उपचार के अभाव में वृद्ध महिला व नवजात की मौत हो गई। जबकि करीब आधा दर्जन मरीजों की स्थिति गंभीर होने पर उन्हें हायर सेंटर रेफर किया गया। इसी प्रकार सर्दी, जुखाम सहित अन्य बीमारियों के मरीजों को भी जेएलएन अस्पताल से बिना उपचार लौटना पड़ा। जिले भर के सरकारी अस्पताल/ डिस्पेंसरी में मरीज खासे परेशान रहे। सरकारी खानापूर्ति भी हुई, ‘रस्म अदायगी’ के चलते डॉक्टर्स के स्थान पर आयुष चिकित्सक लगाकर ‘पल्ला’ झाड़ा गया। चिकित्सकों के अवकाश के दौरान मरीज खासे परेशान रहे। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के कार्मिकों के भी अवकाश पर रहने से मरीजों के दर्द को बयां करना मुश्किल है। लगातार हो रही हड़तालों और सोमवार को सेवारत डॉक्टरों के सामूहिक अवकाश के बाद सरकार ने चिकित्सा विभाग में 17 सितम्बर से 3 महीने के लिए रेस्मा लागू कर दिया है। इससे क्या जनता की तमाम परेशानियां खत्म हो गईं। राज्य कर्मचारी/ आंगनबाड़ी/लेब टेक्नीशियन समेत बहुत से ‘नाराज’ बाहें चढ़ाकर मैदान में आ चुके हैं। फिलहाल डॉक्टर्स के ‘तेवर’ तीखे हैं और पब्लिक ‘निढ़ाल’। उनकी 33 सूत्री मांगों पर कार्रवाई हो, इस पर राज्य सेवारत चिकित्सक संघ ने गत माह की 31 तारीख को चिकित्सकों के सामूहिक अवकाश पर जाने की चेतावनी दी थी। इसके बाद राज्य सरकार ने 15 दिन में सकारात्मक हल निकालने का आश्वासन दिया था, पर बात बनी नहीं। चिकित्सकों की यह कोई पहली हड़ताल नहीं है। चिकित्सकों की यह कोई प्रदेश में पहली हड़ताल नहीं है। बरसों में पता नहीं कर्मचारी/ शिक्षक/ डॉक्टर्स कितनी बार हड़ताल पर उतरे, लेकिन हमेशा उनकी खुद की मांगों के आगे जनता ‘गौण’ हो गई। कभी न ऐसा सुना गया न देखा गया कि जनता की मांगों को लेकर कोई कर्मचारी अथवा अधिकारी संगठन आंदोलन पर उतरा हो। मकराना में राजकीय चिकित्सालय में चिकित्सक, नर्सिंग स्टॉफ इत्यादि के कुल 61 पद स्वीकृत थे । वर्तमान में 55 पद में से 28 पद रिक्त हैं। कुचामनसिटी का राजकीय चिकित्सालय 150 बेड में क्रमोन्नत हो चुका है, लेकिन सुविधाएं आज भी 50 बेड के बराबर है। चिकित्सकों की संख्या तो बढ़ीं, लेकिन सुविधाओं की ‘किल्लत’ बरकरार है। परबतसर, डीडवाना, पादूकलां, मेड़तासिटी, रियांबड़ी, लाडनूं, नावांसिटी ही नहीं नागौर की डिस्पेंसरी की हालत भी कोई खास अच्छी नहीं है। बहुत सी खामियां है जो मरीजों को ‘मुंह’ चिढ़ा रही है। कहीं जांच की सुविधा नहीं तो कहीं दवा नहीं तो कहीं स्टाफ की कमी। तिल-तिल ‘घिसट’ रहे रोगियों पर तो ‘दया’ नहीं की जाती। अस्पताल/डिस्पेंसरियों की खामियों के लिए तो हड़ताल/धरना/प्रदर्शन नहीं होते। सरकार खामियां दूर नहीं करती, जनता की सुनवाई नहीं होती और चिकित्सक/ नर्सिंग स्टाफ का अपना तर्क है कि ये काम उनका नहीं है। केवल चिकित्सक ही नहीं, कोई कर्मचारी संगठन हो या बार एसोसिएशन। शिक्षक संघ हो या अधिकारी यूनियन। जनता की मांग पर आंदोलन करते ‘नजर ’ नहीं आते। यह जिम्मा विपक्ष का बताया जाता है, सरकार सुनने में थोड़ा ‘कमजोर’ होती है। ऐसे में जनता का ‘हक’ न कभी ढंग से मांगा जाता है न उसकी सुनवाई होती है। कभी जनहित में भी तो हड़ताल करें चिकित्सक/इंजीनियर/ अफसर/कर्मचारी/वकील, ताकि जनता का साथ मिले। अपने-अपने हक के लिए बार-बार जनता को परेशान करना भी कहां तक ठीक है? समझौता वार्ता में कभी जनता की ‘दिक्कतों’ पर भी तो बातचीत कीजिए। सरकारी स्कूल/कॉलेजों की मुश्किलों पर शिक्षक/व्याख्याता, मरीजों की परेशानियों पर चिकित्सक/नर्सिंग स्टॉफ, अतिक्रमण से परेशान जनता के हित में परिषद/पालिका कर्मी, पानी/बिजली की किल्लत पर जलदाय/विद्युतकर्मी लें सामूहिक अवकाश या करें हड़ताल। ताकि जनहित की नई इबारत लिखी जाए। sharsh.pandey0@gmail.com