Tuesday, September 19, 2017
कभी जनहित में भी तो कीजिए हड़ताल
संदीप पाण्डेय
मांग पूरी नहीं होती। सरकार के आश्वासन के ‘राशन’ से आखिर कब किसका पेट पूरा भरा है। अब हड़ताल-धरना-प्रदर्शन ‘बहुतायात’ में होते हैं। कर्मचारी/ अधिकारी संगठन भी अलग-अलग खेमे हैं। एक सरकार के साथ तो दूसरा विपक्ष से ‘गलबहियां’ करते हुए चलता है। विरोध के सुर स्वयं ‘हितार्थ’ या यूं कहें कि अपने हक को लेकर ही ज्यादा होता है। यही हाल राजनीतिक दलों का है, जो विपक्ष में होता है, उसे भी जनता के हित का तभी ध्यान आता है। सरकार बनने के बाद जनता की परेशानियों से दूरी बनाने का दायित्व बखूबी निभाया जाता है। चिकित्सक हड़ताल/सामूहिक अवकाश पर चले गए तो सरकारी ‘तामझाम’ सामने आ गया। नागौर में उपचार के अभाव में वृद्ध महिला व नवजात की मौत हो गई। जबकि करीब आधा दर्जन मरीजों की स्थिति गंभीर होने पर उन्हें हायर सेंटर रेफर किया गया।
इसी प्रकार सर्दी, जुखाम सहित अन्य बीमारियों के मरीजों को भी जेएलएन अस्पताल से बिना उपचार लौटना पड़ा। जिले भर के सरकारी अस्पताल/ डिस्पेंसरी में मरीज खासे परेशान रहे। सरकारी खानापूर्ति भी हुई, ‘रस्म अदायगी’ के चलते डॉक्टर्स के स्थान पर आयुष चिकित्सक लगाकर ‘पल्ला’ झाड़ा गया। चिकित्सकों के अवकाश के दौरान मरीज खासे परेशान रहे। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के कार्मिकों के भी अवकाश पर रहने से मरीजों के दर्द को बयां करना मुश्किल है। लगातार हो रही हड़तालों और सोमवार को सेवारत डॉक्टरों के सामूहिक अवकाश के बाद सरकार ने चिकित्सा विभाग में 17 सितम्बर से 3 महीने के लिए रेस्मा लागू कर दिया है। इससे क्या जनता की तमाम परेशानियां खत्म हो गईं। राज्य कर्मचारी/ आंगनबाड़ी/लेब टेक्नीशियन समेत बहुत से ‘नाराज’ बाहें चढ़ाकर मैदान में आ चुके हैं। फिलहाल डॉक्टर्स के ‘तेवर’ तीखे हैं और पब्लिक ‘निढ़ाल’। उनकी 33 सूत्री मांगों पर कार्रवाई हो, इस पर राज्य सेवारत चिकित्सक संघ ने गत माह की 31 तारीख को चिकित्सकों के सामूहिक अवकाश पर जाने की चेतावनी दी थी। इसके बाद राज्य सरकार ने 15 दिन में सकारात्मक हल निकालने का आश्वासन दिया था, पर बात बनी नहीं। चिकित्सकों की यह कोई पहली हड़ताल नहीं है। चिकित्सकों की यह कोई प्रदेश में पहली हड़ताल नहीं है। बरसों में पता नहीं कर्मचारी/ शिक्षक/ डॉक्टर्स कितनी बार हड़ताल पर उतरे, लेकिन हमेशा उनकी खुद की मांगों के आगे जनता ‘गौण’ हो गई। कभी न ऐसा सुना गया न देखा गया कि जनता की मांगों को लेकर कोई कर्मचारी अथवा अधिकारी संगठन आंदोलन पर उतरा हो। मकराना में राजकीय चिकित्सालय में चिकित्सक, नर्सिंग स्टॉफ इत्यादि के कुल 61 पद स्वीकृत थे । वर्तमान में 55 पद में से 28 पद रिक्त हैं। कुचामनसिटी का राजकीय चिकित्सालय 150 बेड में क्रमोन्नत हो चुका है, लेकिन सुविधाएं आज भी 50 बेड के बराबर है। चिकित्सकों की संख्या तो बढ़ीं, लेकिन सुविधाओं की ‘किल्लत’ बरकरार है। परबतसर, डीडवाना, पादूकलां, मेड़तासिटी, रियांबड़ी, लाडनूं, नावांसिटी ही नहीं नागौर की डिस्पेंसरी की हालत भी कोई खास अच्छी नहीं है। बहुत सी खामियां है जो मरीजों को ‘मुंह’ चिढ़ा रही है।
कहीं जांच की सुविधा नहीं तो कहीं दवा नहीं तो कहीं स्टाफ की कमी। तिल-तिल ‘घिसट’ रहे रोगियों पर तो ‘दया’ नहीं की जाती। अस्पताल/डिस्पेंसरियों की खामियों के लिए तो हड़ताल/धरना/प्रदर्शन नहीं होते। सरकार खामियां दूर नहीं करती, जनता की सुनवाई नहीं होती और चिकित्सक/ नर्सिंग स्टाफ का अपना तर्क है कि ये काम उनका नहीं है। केवल चिकित्सक ही नहीं, कोई कर्मचारी संगठन हो या बार एसोसिएशन। शिक्षक संघ हो या अधिकारी यूनियन। जनता की मांग पर आंदोलन करते ‘नजर ’ नहीं आते। यह जिम्मा विपक्ष का बताया जाता है, सरकार सुनने में थोड़ा ‘कमजोर’ होती है। ऐसे में जनता का ‘हक’ न कभी ढंग से मांगा जाता है न उसकी सुनवाई होती है। कभी जनहित में भी तो हड़ताल करें चिकित्सक/इंजीनियर/ अफसर/कर्मचारी/वकील, ताकि जनता का साथ मिले। अपने-अपने हक के लिए बार-बार जनता को परेशान करना भी कहां तक ठीक है? समझौता वार्ता में कभी जनता की ‘दिक्कतों’ पर भी तो बातचीत कीजिए। सरकारी स्कूल/कॉलेजों की मुश्किलों पर शिक्षक/व्याख्याता, मरीजों की परेशानियों पर चिकित्सक/नर्सिंग स्टॉफ, अतिक्रमण से परेशान जनता के हित में परिषद/पालिका कर्मी, पानी/बिजली की किल्लत पर जलदाय/विद्युतकर्मी लें सामूहिक अवकाश या करें हड़ताल। ताकि जनहित की नई इबारत लिखी जाए।
sharsh.pandey0@gmail.com
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