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दोस्तों,
कुछ दिनों पहले मेरी यह कहानी आकाशवाणी से प्रसारित हुई थी। जिंदगी की असलियत को कुछ यूं उतारने की कोशिश की। जिसमें घर की मुश्किलों के बीच सहने और जुड़े रहने की परिवार के हर सदस्यों की सहने के जज्बे को भी शब्दों में पिरोया है।
मां की मुराद
संदीप पाण्डेय
टूटा-फूटा घर पूरी तरह गिरने के मुहाने पर खड़ा था। आसपास के मकानों के आलीशान होने की शर्मिंदगी घर में बच्चों से लेकर बड़े तक झेल रहे थे। रकम थी नहीं तो कोशिश की बात तक नहीं होती थी। कमाई सब भाइयों की इतनी थी कि जिंदगी की जरूरतें जैसे-तैसे पूरी हो रही थीं। घर चल रहा था, बड़ी ख्वाहिशें तो पूरी नहीं होती थीं, लेकिन छोटी इच्छाओं के पूरी होने पर फक्र कर लेते थे। और बस खुशी इस बात की थी कि किसी के आगे मदद मांगने की बेइज्जती से बचे हुए थे। इस बार की बारिश में कहीं ढह न जाए आशियाना, इसी चिंता से आने वाले झूठे ख्वाबों का सिलसिला भी लगभग बंद सा हो गया था। रोजाना सुबह अखबार पर नजर डालते, चाय की चुस्कियों के बीच घर के सभी लोग बीमार मकान के ‘इलाज’ पर चर्चा तो शुरू करते, लेकिन यह लंबी नहीं खिच पाती। इसकी वजह भी साफ थी कि सीमेंट/गारा हो या फिर ईंट/बजरी ये सब दाम होगा तभी तो हो पाएगा। कारीगर/बेलदार अपनी पगार लेगा, सो अलग। यही हिसाब तमाम प्रयासों पर पानी फेर देता। कभी-कभी कौन-कितना खर्च करेगा, इस मुद्दे पर भी जब बात शुरू होती थी तो थोड़ा गरमा-गरमी तक हो जाती थी। फिर थोड़ा नाराज होकर सब अपने-अपने कमरों में जा घुसते, बरामदा खाली रह जाता। बस मां उसमें बैठे-बैठे बड़बड़ाने लगती। अब उसे चुप कराने की हिम्मत किसी में थी ही नहीं। माहौल को सामान्य करने के लिए बीते पन्ने पलटने लगती। कभी गुस्से से तो कभी हलके में बताने लगती कि कितनी मुश्किल से खरीदा गया था मकान। कितना घूमे शहर में, कभी मकान जचता तो औकात देखकर चुप हो जाते तो कभी हैसियत के मुताबिक मिलता तो वो उन्हें पसंद नहीं आता। मां जब कभी भी यह व्यथा-कथा शुरू करती, पता नहीं क्यों मैं उनको ध्यान से सुनता रहता। उदास हो जाता, पैसा न हो पाने पर कोसने लगता अपने नसीब और भगवान को या फिर मुस्कुराकर सबकुछ अच्छा होने की उम्मीद पर टाल देता। यह जरूर था कि उनकी जुबान से हर आठ-दस दिन में यही सब सुनाई दे जाता था। ये सबकुछ मुझे भी रट सा गया था। पिता बड़ी मेहनत से खरीद पाए थे, इस मकान को। साइकिल पर हर रविवार नई-नई कॉलोनियों में जाकर बच्चों के लिए घर का सपना संजोते। यह अलग बात थी कि उन्होंने जिंदगी के तकरीबन पैंतालीस बरस किराए के मकान में जाया कर दिए। इसमें बीस बरस एक विवादास्पद मकान में जमे किराएदारों को निकलवाने के लिए कोर्ट के चक्कर लगाए। कानून की कमजोरियां से वाकिफ थे। वकील साहब बार-बार केस जीतने का दावा जताते थे और पिता-घर परिवार के लिए मेहनत कर कमाए चंद रुपए का एक बड़ा हिस्सा इसी केस पर खर्च कर चुके थे। जैसे-तैसे मकान खाली हुआ फिर बिक गया। दूसरा मकान ढूंढने में कुछ बरस बीत गए। कभी मां को साथ ले जाते तो कभी अपने ही साथियों के साथ निकल पड़ते। नई-नई बसती कॉलोनियों में दूरी नहीं देख रहे थे, वे अपनी मजबूरी के बीच आशियाने की ललक लिए फिर रहे थे। उन्हें पता था कि रकम मामूली सी है, उधार के सहारे ही यह सब हो पाएगा। आखिरकार मकान ले ही लिया। बिना नांगल-मुहूर्त के उसमें रहने आ गए। रिश्तेदार/मित्रों को भोजन कराने की स्थिति में नहीं थे। अब उनके मकान की कोई सार-संभाल ही नहीं कर रहा। हाल यही रहे तो एक दिन भरभरा कर गिर जाएगा। सब आ जाएंगे सडक़ पर, फिर क्या करेंगे। ऐसा नहीं था कि सब भाई मकान को दुरुस्त कराने की सोचते नहीं थे, लेकिन रजिस्ट्री के अभाव में लोन की दिक्कत तो थी ही, कुछ आशंकाएं भी थीं जो जैसे-तैसे गुजरने पर सबको विवश कर देती थी। एक दिन मां के इसी गुस्से से अवसाद में आ गया। मां गलत भी कहां कहती है? रात को नींद भी नहीं आई। सुबह उठा तो देखा मां कुर्सी पर बैठी है। पोते-पोतियों के साथ मन बहलाने में लगी है। बात करने की मेरी तो हिम्मत ही नहीं थी। अखबार ढूंढ ही रहा था कि मां बोली, चाय पी ली।
दोस्तों,
कुछ दिनों पहले मेरी यह कहानी आकाशवाणी से प्रसारित हुई थी। जिंदगी की असलियत को कुछ यूं उतारने की कोशिश की। जिसमें घर की मुश्किलों के बीच सहने और जुड़े रहने की परिवार के हर सदस्यों की सहने के जज्बे को भी शब्दों में पिरोया है।
मां की मुराद
संदीप पाण्डेय
टूटा-फूटा घर पूरी तरह गिरने के मुहाने पर खड़ा था। आसपास के मकानों के आलीशान होने की शर्मिंदगी घर में बच्चों से लेकर बड़े तक झेल रहे थे। रकम थी नहीं तो कोशिश की बात तक नहीं होती थी। कमाई सब भाइयों की इतनी थी कि जिंदगी की जरूरतें जैसे-तैसे पूरी हो रही थीं। घर चल रहा था, बड़ी ख्वाहिशें तो पूरी नहीं होती थीं, लेकिन छोटी इच्छाओं के पूरी होने पर फक्र कर लेते थे। और बस खुशी इस बात की थी कि किसी के आगे मदद मांगने की बेइज्जती से बचे हुए थे। इस बार की बारिश में कहीं ढह न जाए आशियाना, इसी चिंता से आने वाले झूठे ख्वाबों का सिलसिला भी लगभग बंद सा हो गया था। रोजाना सुबह अखबार पर नजर डालते, चाय की चुस्कियों के बीच घर के सभी लोग बीमार मकान के ‘इलाज’ पर चर्चा तो शुरू करते, लेकिन यह लंबी नहीं खिच पाती। इसकी वजह भी साफ थी कि सीमेंट/गारा हो या फिर ईंट/बजरी ये सब दाम होगा तभी तो हो पाएगा। कारीगर/बेलदार अपनी पगार लेगा, सो अलग। यही हिसाब तमाम प्रयासों पर पानी फेर देता। कभी-कभी कौन-कितना खर्च करेगा, इस मुद्दे पर भी जब बात शुरू होती थी तो थोड़ा गरमा-गरमी तक हो जाती थी। फिर थोड़ा नाराज होकर सब अपने-अपने कमरों में जा घुसते, बरामदा खाली रह जाता। बस मां उसमें बैठे-बैठे बड़बड़ाने लगती। अब उसे चुप कराने की हिम्मत किसी में थी ही नहीं। माहौल को सामान्य करने के लिए बीते पन्ने पलटने लगती। कभी गुस्से से तो कभी हलके में बताने लगती कि कितनी मुश्किल से खरीदा गया था मकान। कितना घूमे शहर में, कभी मकान जचता तो औकात देखकर चुप हो जाते तो कभी हैसियत के मुताबिक मिलता तो वो उन्हें पसंद नहीं आता। मां जब कभी भी यह व्यथा-कथा शुरू करती, पता नहीं क्यों मैं उनको ध्यान से सुनता रहता। उदास हो जाता, पैसा न हो पाने पर कोसने लगता अपने नसीब और भगवान को या फिर मुस्कुराकर सबकुछ अच्छा होने की उम्मीद पर टाल देता। यह जरूर था कि उनकी जुबान से हर आठ-दस दिन में यही सब सुनाई दे जाता था। ये सबकुछ मुझे भी रट सा गया था। पिता बड़ी मेहनत से खरीद पाए थे, इस मकान को। साइकिल पर हर रविवार नई-नई कॉलोनियों में जाकर बच्चों के लिए घर का सपना संजोते। यह अलग बात थी कि उन्होंने जिंदगी के तकरीबन पैंतालीस बरस किराए के मकान में जाया कर दिए। इसमें बीस बरस एक विवादास्पद मकान में जमे किराएदारों को निकलवाने के लिए कोर्ट के चक्कर लगाए। कानून की कमजोरियां से वाकिफ थे। वकील साहब बार-बार केस जीतने का दावा जताते थे और पिता-घर परिवार के लिए मेहनत कर कमाए चंद रुपए का एक बड़ा हिस्सा इसी केस पर खर्च कर चुके थे। जैसे-तैसे मकान खाली हुआ फिर बिक गया। दूसरा मकान ढूंढने में कुछ बरस बीत गए। कभी मां को साथ ले जाते तो कभी अपने ही साथियों के साथ निकल पड़ते। नई-नई बसती कॉलोनियों में दूरी नहीं देख रहे थे, वे अपनी मजबूरी के बीच आशियाने की ललक लिए फिर रहे थे। उन्हें पता था कि रकम मामूली सी है, उधार के सहारे ही यह सब हो पाएगा। आखिरकार मकान ले ही लिया। बिना नांगल-मुहूर्त के उसमें रहने आ गए। रिश्तेदार/मित्रों को भोजन कराने की स्थिति में नहीं थे। अब उनके मकान की कोई सार-संभाल ही नहीं कर रहा। हाल यही रहे तो एक दिन भरभरा कर गिर जाएगा। सब आ जाएंगे सडक़ पर, फिर क्या करेंगे। ऐसा नहीं था कि सब भाई मकान को दुरुस्त कराने की सोचते नहीं थे, लेकिन रजिस्ट्री के अभाव में लोन की दिक्कत तो थी ही, कुछ आशंकाएं भी थीं जो जैसे-तैसे गुजरने पर सबको विवश कर देती थी। एक दिन मां के इसी गुस्से से अवसाद में आ गया। मां गलत भी कहां कहती है? रात को नींद भी नहीं आई। सुबह उठा तो देखा मां कुर्सी पर बैठी है। पोते-पोतियों के साथ मन बहलाने में लगी है। बात करने की मेरी तो हिम्मत ही नहीं थी। अखबार ढूंढ ही रहा था कि मां बोली, चाय पी ली।
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