Thursday, October 4, 2018

पुस्तक समीक्षा

पुस्तक समीक्षा : झूठ के बाजार में 'झूठ से अलग' गजलों की एक दास्तान

संदीप पाण्डेय की गजलें जीवन में व्याप्त झूठ पर केंद्रित हैं. जैसा कि शीर्षक से ही लगता है कि उनकी गजलों में जीवन की उदासी, बेचैनी, क्रोध, चालबाजियां और घोखा सब कुछ हैं

नई दिल्ली: लंबे समय तक पत्रकारिता से जुड़े रहे संदीप पाण्डेय के गजल संग्रह 'झूठ से अलग' को पहली नजर में देखने पर उस वैदिक ऋषि की बात याद आती है जो - असतो मा सदगमय यानी असत्य से सत्य की ओर जाने की प्रार्थना करता है. संदीप पाण्डेय की गजलें जीवन में व्याप्त झूठ पर केंद्रित हैं. जैसा कि शीर्षक से ही लगता है कि उनकी गजलों में जीवन की उदासी, बेचैनी, क्रोध, चालबाजियां और घोखा सब कुछ हैं. समाज जीवन का लंबा अनुभव रखने वाला व्यक्ति ही ऐसी गजल लिख सकता है.

फासले बढ़ रहे हैं अपनों से,
किसका खास होता जा रहा हूं

संदीप पाण्डेय ने अपनी गजलों के जरिए सत्ता और राजनीति पर भी तीखे कटाक्ष किए हैं. इसमें वो सत्ता के खोखले वादों - दावों पर तंज कसते हैं, वहीं सत्ता के इर्द-गिर्द झूठ के मायाजाल को भी उन्होंने अपनी गजल के जरिए बाखूबी दर्शाया है.

महंगाई तो पहुंच गई है आसमान पर,
भाषण से धी-दूध का दरिया बहाएंगे

भारतीय समाज और रिश्तों के तानेबाने में आ रहे बदलाव पर भी उन्होंने कई गजलें लिखी हैं. तेजी से बढ़ते शहरीकरण और रातोरात आधुनिक बन जाने की इच्छा के चलते हमने बहुत कुछ ऐसा खो दिया है, जो हमारी असली धरोहर थी. शहर और गांव को इस विरोधाभास का प्रतीक बनाकर संदीप लिखते हैं-

रिश्ते अब जहर होते जा रहे हैं,
गांव अब शहर होते जा रहे हैं

तमाम परेशानियों और समाज में बढ़ते एकाकीपन के बाद भी वो इंसान में संघर्ष के जज्बे को जलाए रखने में यकीन रखते हैं. उनका कहना है कि सच कहने के लिए जरूरी नहीं कि आपके पीछे हजारों लोग खड़े हों. सच अकेला ही पर्याप्त होता है. क्योंकि सच सच होता है. गवाहों की जरूरत तो झूठ को होती है. वो लिखते हैं-

अकेला हूं साथ में नहीं दौलत-शौहरत,
बावजूद इसके भी बात बड़ी रखता हूं

ये गजल संग्रह हमारे आसपास रच-बस गए झूठ को बखूबी रेखांकित करता है, लेकिन इस झूठ के पार जो सच है, उस पर मोटेतौर पर खामोश है.  लेखक जीवन की चुनौतियों का तार्किक समाधान नहीं दे पाते हैं. झूठ से अलग जो सच है, उस सच की बात इसमें बहुत कम है.

पता नहीं लेखन ने जानबूझकर ऐसा किया है या अनजाने में. हमारे जीवन का झूठ भले एक जैसा हो, लेकिन सबका सच अलग अलग होता है. फिर भी प्रत्येक पाठक अपने लेखक से समाधान की अपेक्षा तो रखता ही है. उम्मीद है कि लेखन की आने वाली रचनाओं में हम कुछ रचनात्मक समाधान पा सकेंगे.

संदीप पाण्डेय के इस गजल संग्रह में कुल 96 गजलें हैं और इसे बोधि प्रकाशन जयपुर ने प्रकाशित किया है. भाषा बहुत ही सरल और सहज है, जो किसी भी अच्छे पत्रकार का स्वाभाविक गुण है. इसके बावजूद प्रत्येक गजल के अंत में उर्दू के कुछ कठिन शब्दों के हिंदी अर्थ दिए गए हैं, जो निश्चित रूप से पाठकों के लिए उपयोगी साबित होंगे.


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